हास्य-व्यंग्य >> नवाबी मसनद नवाबी मसनदअमृतलाल नागर
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नवाबी मसनद...
आधी सदी पहले सन् 1937 में ‘चकल्लस’ चबूतरे पर यह ‘नवाबी मसनद’ आबाद हुई थी। गुलज़ार सड़क के जिस मकान में मेरे ‘चकल्लस’ अख़बार का दफ़्तर था, उसके नीचे ही खुदाबख्श तम्बाकूवाले, मौला पहलवान और उनके साझेदार प्यारे साहब ड्राइवर की बर्फ की दुकान थी और कुछ सब्जी फरोश कुनबों की दुकानें भी थीं। खुदाबख्श के बेटे कादिर बख्श बड़ी रंगीन तबियत के आदमी थे, कबाड़ियों के कन्हैया। ‘चकल्लस’ दफ़्तर के नीचे इन दुकानों और फुटपाथ की दुनिया। कादिर मियां की मस्ती से खुशरंग रहती थी। मौला पहलवान और प्यारे साहब भी मुजस्मिम याजूज़-माजूज़ की जोड़ी ही थे। एक कुश्तिया पहलवान तो दूसरे अक़्ल के अखाड़े के खलीफा। ‘अवध अख़बार’ की खबरों के परखचे उड़ाये जाते, आसपास की बातों पर होनेवाली बहसों में लालबुझक्कड़ी लाजिक के ऐसे-ऐसे कमाल नज़र आते कि दिल बाग़-बाग़ हो जाता था।
‘नवाबी मसनद’ अपने समय में लोकप्रिय हुई। निराला जी इसके नियमित पाठक और प्रशंसक थे। आशा करता हूँ कि पचास वर्ष के बाद आज भी पाठक इसे पसन्द करेंगे।
‘नवाबी मसनद’ अपने समय में लोकप्रिय हुई। निराला जी इसके नियमित पाठक और प्रशंसक थे। आशा करता हूँ कि पचास वर्ष के बाद आज भी पाठक इसे पसन्द करेंगे।
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